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Wednesday, November 28, 2012

गुरु नानक साहिब

    धर्म को विक्रतिहीन करके उसकी मौलिक चमक प्रदान करने के लिए आगे आना एक नितांत साहसपूर्ण कदम होता है और यह कार्य बिरले ही कर पाते हैं। इसे बड़े विवेक, धैर्य और संयम से फलीभूत करके गुरु नानक देव जी ने युग की धारा को मोड़ दिया और अज्ञान 

Monday, November 26, 2012

भाव ही भक्ति है।

    मनुष्य को सत्य की ओर चलना है और यह मोक्ष की साधना है।यह दीक्षा के बिना संभव नहीं है। अगर कोई अँधेरे में चलता है तो उसे एक टार्च जैसे प्रकाश देने वाले यंत्र की जरुरत होती है, अन्यथा वह गहरी खायी में गिर जायेगा। उसी तरह साधना के पथ पर चलने वाले को भी टार्च (दीक्षा) की आवश्यकता होती है अन्यथा उसका अधःपतन हो जाता है। सीखना ज्ञान की साधना है। इस पथ पर चलना अर्थात नियमित साधना, कर्म की साधना है। भक्ति तो मोक्ष साधना का चरम बिंदु है। 
   ज्ञान क्या है? ब्रह्माण्ड का एक-एक कण परमात्मा की अभिव्यक्ति है।यह ज्ञान का सार है। ज्ञान की साधना क्या है? जब कोई साधक यह अनुभव करने लगता है कि प्रत्येक भौतिक विषय परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है, तब वह साधक सिद्धांत के क्षेत्र से व्यवहारिक आचरण के क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है। ब्रह्माण्ड परमात्मा का ही प्रकट रूप है। 
    कर्म साधना क्या है? कर्म साधना की सिद्धि या उपलब्धि क्या है? प्रत्येक भौतिक विषय वस्तु को परमात्मा की अभिव्यक्ति के रूप में सोचते हुए सेवा करना कर्म है, कर्म साधना है। ब्रह्माण्ड परमात्मा का ही प्रकट रूप है, इसकी अनुभूति करना सिद्धि या उपलब्धि कहलाती है। 
 

Sunday, November 25, 2012

अनुशासन

    व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए अनुशासित रहना आवश्यक है। अनुशासन से मानवता का सीधा सम्बन्ध है। यह एक-दुसरे के बिना अर्थहीन है। आत्मानुशासन अपनाकर मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर सकता है।अनुशासन एक शक्तिपुंज है। बिखराव का जीवन सामर्थ्यवान को असमर्थ कर देता है। अनुशासनविहीन समाज की कल्पना करने से ही मस्तिष्क में अराजकता की एक तस्वीर उभर आती है। स्वार्थप्रधान द्रष्टिकोण का बोलबाला रहता है, सभ्यता कोसों दूर छूट जाती है। भला ऐसे समाज या वातावरण में सहृदय मानव का निर्वाह क्या संभव होगा?
    मानव एक सामाजिक प्राणी है और वह अपने अनुकूल सामाजिक सरंचना चाहता है। continue  ..

Saturday, November 24, 2012

दिव्य उपहार

    प्रेम प्रभु का दिव्य उपहार है। अंतर्मन में इसके जागरण से मन प्रफुल्लित और पुलकित हो जाता है एवं हृदय पवित्र भावनाओं से स्पंदित होने लगता है। इसके जागरण से सर्वत्र आनंद की अनुभूति होने लगती है, क्योंकि परमात्मा सच्चिदानंद स्वरुप हैं। वासना प्रेम का प्रदुषण है।
    इस प्रदूषण ने आज पूरे जगत को प्रदूषित कर रखा है, लेकिन इसका रूपांतरण किया जा सकता है। इसका समाधान निहित है- उपनिषद के सर्वखल्विदं ब्रह्म में। अद्वैत वेदांत के इस सिद्धांत के अनुसार प्रभु जगत के कण-कण में विध्यमान है, परन्तु मानव की भेदद्रष्टि ही जगत की समस्याओं की जड़ है, जिसके समाप्त होते ही मनुष्य को जीवन के शाश्वत सत्य का बोध होने लगता है। प्रेम अपनी पूर्णता में पावन प्रकाश की छटा बिखेरता है। इसमें आनंद का दिव्य नाद निर्झर होता रहता है, जो जीवन पथ का पाथेय है। इसी आधार पर मनुष्य उचित-अनुचित, भले-बुरे का निर्णय लेता एवं इसी निर्णय क्षमता को विवेक, प्रज्ञा एवं मेधा आदि भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है।
     प्रेम का यही पावन प्रकाश अमर्त्य एवं असत से सत का प्रशस्त करता है। मानव की दुरावस्था का एकमात्र कारण है-प्रभु के प्रेम एवं प्रकाश का घोर अभाव। जगत में वासना और अंधकार का गहरा आवरण पड़ा हुआ है। इस महापंक में जितना डुबो, अतृप्ति की ज्वाला उतनी ही भड़कती है।इस अतृप्ति से क्रोध और इसे पाने की का लोभ मचलता है। फिर इसे पा जाने पर इससे चिपके रहने की आसक्ति मोह के रूप में पनपती है। ये भोग प्रधान कामनाएं सभी आसुरी शक्तियों का मूल कारण हैं, परन्तु यही कामनाएं जब परिष्कृत हो जाती हैं तो इनका पवित्र रूप महाप्रसाद में परिवर्तित हो जाता है। यही महातृप्ति है। प्रभु की उपस्थिति मात्र से ही उनकी दिव्यता की आभा से मूर्छना समाप्त हो जाती है। कर्म-संस्कारों के बीच गल जाते हैं और आत्मा-परमात्मा से मिलने को आकुल-व्याकुल हो उठती है।
-रवि कुमार सिंह  

Friday, November 23, 2012

हकीकत

  • 20 रूपये का नोट बहुत ज्यादा लगता है, जब किसी गरीब को देना हो, मगर होटल में टिप देना हो तो बहुत कम लगता है। 
  •  3 मिनट भगवान को याद करना कितना मुश्किल है। मगर 3 घंटे फिल्म देखना कितना आसान है। 
  •  पूरे दिन मेहनत करने के बाद जिम जाने से नही थकते, परन्तु माँ-बाप के दबाने से थक जाते हैं। 
  •  वेलेंटाइन डे का पूरे साल इंतजार करते हैं, मगर "मदर डे" कब होता है मालूम नहीं। 
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श्रेय और आत्म-कल्याण

   " वेदांत में श्रेय व प्रेय का विवरण आता है। प्रेय का अर्थ है प्रिय, जो तुरंत आकर्षित करता है। श्रेय सच्चे कल्याण का प्रेरक है जो अंत में मंगलमय होता है। नीति और धर्म, समस्त वस्तुओं और अनुभवों को इन दो वर्गों (श्रेय और प्रेय) में बाँटते हैं। प्रेय में शारीरिक सुख, कामनाओं की पूर्ति और निरंतर आशा, निराशाओं में मनुष्य डूबता रहता है, परन्तु श्रेय मानव और समाज के सच्चे कल्याण से सम्बंधित है। भौतिक सुख के लिए मनुष्य अनैतिक कार्य भी करता है, जैसा कि आज भ्रष्टाचार एवं चरित्र-पतन के रूप में देखा जा सकता है।"
    " श्रेय नैतिकता का पाठ पढ़ाकर अध्यात्मिक विकास पर जोर देता है। मनुष्य के आत्मविश्वास में प्रथम स्तर नैतिकता है अर्थात सामाजिक संदर्भ में मनुष्य का कल्याण। नैतिक स्तर पर मनुष्य अपने अलावा दूसरों का भी ध्यान रखता है। सच्चे श्रेय या कल्याण के लिए बाहरी और भीतरी दोनों स्तरों पर अनुशाशन जरुरी है। आन्तरिक अनुशासन से तात्पर्य है- ईर्ष्या, द्वेष, लोभ-मोह व क्रोध पर नियंत्रण। इसके द्वारा जब ह्रदय में उठने वाली समस्त कामनाएं नष्ट हो जाती हैं तो मनुष्य अम्रत का पान करके अमरता को प्राप्त करता है और इसी जगत में ब्रह्म की अनुभूति करता है। प्रेय उसको तात्कालिक सुख देता है और श्रेय उसका कल्याण करता है।"
    "सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन ने गीता की विवेचना में कहा है- यदि स्वर्ग का सुख भोगना है तो पूरे समाज को भी साथ में लेना पड़ेगा और यही नैतिकता कहलाती है। कठोपनिषद में इसी समाज कल्याण की भावना का प्रदर्शन नचिकेता ने यम के सम्मुख किया। यम को जब विश्वास हो गया कि नचिकेता इस रहस्य या ज्ञान को प्राप्त करने का सच्चा अधिकारी है तब उन्होंने नचिकेता को ज्ञान देते हुए बताया कि आत्मा अजर-अमर है। आत्मा ही ब्रह्म है तथा उसकी कभी म्रत्यु नहीं होती। केवल पंच महाभूतों का बना यह शरीर रूपी ढांचा समय अनुसार क्षय को प्राप्त होता है, जिसे संसार में मृत्यु के नाम से पुकारा जाता है। कर्मों का भोग करने के लिए सूक्ष्म शरीर के साथ आत्मा जन्म, मृत्यु के चक्कर में पड़ी रहती है।" 
-रवि कुमार सिंह  

Wednesday, November 21, 2012

होंगे कामयाब

    जो कामयाब होते हैं, उन्हें मंजिल कोई एक या दो दिन में नहीं मिल जाती। इसके पीछे उनकी योजना, दूरदर्शिता और सही दिशा में अनवरत कड़ी मेहनत होती है।
     दरअसल, सफलता और सम्रद्धि के सपने तो हर कोई देखता है, लेकिन इसे हासिल करने के लिए जिन प्रयासों की जरुरत होती है, वह हर कोई नहीं कर पाता। यही कारण है की कामयाबी केवल गिने-चुने लोगों को ही मिल पाती है और बाकी उनकी कामयाबी देख सिर्फ आहें भरते रह जाते हैं।
     किसी भी मंजिल को हासिल करने से पहले कल्पनाओं या सपनों का देखना बेहद जरुरी होता है, क्योंकि इनके बिना आप कभी कामयाब नहीं हो सकते। परन्तु सपने कैसे होने चाहिए जिससे कि हम कामयाब हो जाएँ? आईये इस विषय पर छोटी सी चर्चा करते हैं--
हमारे सपनों में स्मार्टनेस होनी चाहिए-  SMART = S. M. A .R .T. 
  • S = Specific
  • M = Measurable
  • A = Achievable
  • R = Realistic
  • T = Time Bound
मैं सोचता हूँ, अब आप समझ गये होंगे कि हमारे सपने स्मार्ट क्यों होने चाहिए? चलो थोडा सा और स्पष्ट कर देता हूँ--
"बेहतर करियर को लेकर सपने देखना कोई बुरी बात नहीं। सपने जरुर देखें, लेकिन सपने सिर्फ अपने तक ही सिमित न रखें। इन्हें व्यावहारिक भी बनायें। ऐसा तभी होगा, जब आप यथार्थ के धरातल पर रहकर सपने देखेंगे। सपने ऐसे नहीं होने चाहिए, जो आपके सामर्थ्य से परे होने के कारण असंभव हो जाएँ। जरुरी नहीं कि सबके सपने और मंजिल एक जैसी हो। अपने स्वाभाव और क्षमता के अनुसार हर व्यक्ति के सपने अलग-अलग होते हैं। दूसरों की देखा-देखी न तो सपने देखें और न ही लक्ष्य तय करें।"   - रवि कुमार सिंह 

Tuesday, November 20, 2012

जीने की कला

संसार में  रहना एक विध्या (कला) है। अपने सुख की इच्छा रखने वाले को यह कला नहीं आती। घर से बाहर जाने पर सेवा चाहते रहने से हमारा कल्याण नहीं होता। किसी से कुछ भी चाहते रहने से हम पराधीन हो जाते हैं। अपेक्षा, उपेक्षा की जननी है। संसार में कुछ भी चाहना हमे पराधीन बनाता है। दूसरों की चाहत पूरी करने से हमारे अन्दर अपनी चाहत का त्याग करने की सामर्थ्य आ जाती है। अपने स्वार्थ की ही इच्छा रखने वाले की त्याग की शक्ति नष्ट हो जाती है। इच्छाएं तो राजा को भी भिखारी बना देती हैं। मैं तो यही कहूँगा कि - "जहाँ चाह है, वहां दुःख होता है।" क्योंकि चाहत(इच्छाएं) पूरी न होने पर दुःख की अनुभूति होती है। दूसरों की सेवा-सहायता करने से हमारे अन्दर स्वतंत्रता आती है।
संसार में रह कर स्वतंत्र होना ही संसार से ऊँचा उठना है। यही मुक्ति और जीने की सार्वभौमिक कला है। किसी भी प्रकार की परिस्तिथि में न डिगने पर निश्चय ही विजय मिलती है। स्वयम के लिए न रहकर संसार के लिए रहने से ऊँचे उठते हैं। किसी से कुछ भी न चाहने पर दुःख नहीं आते। सेवा करने से त्याग होता है। जल में कमल के पत्ते की तरह रहना है। दुखों का कारन-आशा और नैराश्य है। किसी से भी आशा रखना छोड़ दो फिर देखना दुःख आपके पास आ ही नहीं सकते। संसार से चाहत रखना ठगाई में फसना है। व्यव्हार में परमार्थ की कला है- चाह को त्याग कर सेवा करना। संसार में रहना है तो रबर की गेंद की तरह रहो। वह खेलते समय फुदकती तो बहुत है, लेकिन कही पर चिपकती नहीं। मिटटी का लोंदा बनकर नहीं। लेने की इच्छा फसना है, अद्भुत मुक्ति ही स्वतः सिद्ध परम कल्याण है।
-रवि सर (आशीष)

Monday, November 19, 2012

संशय से बचें

संशय मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा अवरोधक है।संशय का अर्थ है- किसी वस्तु के न होने पर भी उसके उसके होने की आशंका से भयभीत होना।      सच पूछें तो संशय का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता , क्योंकि यह होता ही नहीं है। दरअसल यह एक प्रकार से मनुष्य के जीवन का विकार है, एक प्रकार की काल्पनिक भावना है। इस प्रकार संशय वह है जो अस्तित्वहीन होने के वावजूद भी मानव के जीवन को प्रभावित कर देता है। संशय का मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य स्वयं इस कल्पना का निर्माण कर लेता है और फिर उससे भयातुर कांपने लगता है।

   अब सवाल यह उठता है- आखिर संशय से मुक्ति का उपाय क्या है? दरअसल इसका सबसे सरल उपाय यही है की मानव मात्र प्रभु की शरण में समर्पित हो जाये। सच्चे मन से उनकी आराधना करे। कहा गया है, यदि कोई सच्चे मन से प्रभु को समर्पित हो जाये और परमात्मा में उसका विश्वास हो जाये तो वह एक ही साथ काम, क्रोध, भय, संशय आदि से मुक्त हो जाता हैं। संशय में पड़कर मनुष्य अपनी शक्ति को भुला देता है। उसके अन्दर कार्य करने की जो शक्ति है उसे वह नष्ट कर देता है। उसके शरीर में जो प्राण शक्ति होती है वह कम्पित होने लगती है, जिससे उसके जीवन में निराशा आ जाती है। संशय एक साथ सम्पूर्ण शरीर को निष्क्रिय कर देता है। उसके जीवन की सारी विकास यात्रा रुक जाती है और वह अपने भाग्य पर रोते-रोते जीवन गवा देता है। परमात्मा में विश्वास रखने वाले व्यक्ति हमेशा संशय से मुक्त होते हैं और अपनी विवेक शक्ति को जाग्रत कर जीवन में अवरोध पैदा करने वाले तमाम विकारों को नष्ट करने की कला जान जाते हैं। शरीर में विकार होना स्वाभाविक है। काम, क्रोध, भय और संशय ये सारे विकार जो जीवन को संतुलित होने से रोकते हैं, लेकिन विवेकी पुरुष इन विकारों को अपने जीवन में नहीं आने देते और जीवन को सार्थक बनाने में लगे रहते हैं। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण ने मानव मात्र को सावधान करते हुए गीता में कहा है-"संशयात्मा विनश्यति।"

-रवि 

Sunday, November 18, 2012

त्याग और विरक्ति

    त्याग स्थूल जगत से सम्बन्ध रखता है। जीवन और जगत की अपरिहार्य आवश्यकताओं को छोड़ देना त्याग है। त्याग के दो रूप हैं- ऐच्छिक और अनैच्छिक। ऐच्छिक त्याग से सुखानुभूति होती है और अनैच्छिक से दुखानुभुती। सांसारिक संबंधों एवं राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि से निर्लिप्त हो जाना विरक्ति है।
   
पुराण में कहा गया है कि संसार कालकूट विष से भी भयंकर विष है। इसमें मिथ्यात्व का भाव रखकर ही इसके विष को नष्ट किया जा सकता है। सांसारिक भोगों से इन्द्रियों की तृप्ति नहीं होती, अतएव विचारपूर्वक मन, वाणी और कर्म से भोगों के प्रति विरक्ति का भाव रखना ही श्रेयस्कर है। भोग ही मनुष्य के अनेक योनियों में जन्म लेने का कारण बनते हैं। लौकिक और पारलौकिक इन दोनों को हेय समझकर जो इनका परित्याग कर देता है, वही विरक्त है। हमारे ऋषि-मुनियों के जीवन में त्याग और विरक्ति का अदभुत सामंजस्य रहा है। उन्होंने जिस साधना मार्ग को अपनाया वह उनके स्वयं के साथ-साथ समाज और देश के लिए भी कल्याणप्रद सिद्ध हुआ। संसार अज्ञानमूलक है। निष्काम कर्म के द्वारा जीव भाव क्षीण होता है। अज्ञान अंधकार नष्ट हो जाता है।सर्वत्र कोटि सूर्य सम प्रकाश की ज्योति उसे निरंतर जगाये रहती है। तब बाह्य नेत्र भले ही बंद रहें, लेकिन अंतर-चक्षु खुले रहते हैं। ज्ञान सूर्य से प्रकाशित जीवात्माएं जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाती हैं। उन्हें शरीर की म्रत्यु प्रभावित नहीं करती। आत्मा तो नित्य है, शाश्वत है, वह कभी नहीं मरती। उसे वही जान पाता है, जो आत्म-साक्षात्कार कर स्वयं में स्तिथ होना है। इस स्तिथि को जीव उस समय प्राप्त कर पाता है जब वह त्याग और विरक्ति के मार्ग को अपनाना है। त्याग और विरक्ति के लिए आवश्यक है कि संसार में आसक्ति का भाव न हो। त्याग के द्वारा इस भवसागर को पार किया जा सकता है। त्याग और विरक्ति के द्वारा ही मुक्ति प्राप्त होती है।

Saturday, November 17, 2012

लोक-उपकार भी ईश्वर भजन

    हमारे नितिशाश्त्रो में कहा गया है कि लौकिक कर्मकाण्ड भगवद-भजन का प्रदर्शन मात्र है। अगर हम वाकई प्रभु की भक्ति करना चाहते हैं, तो हमें कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे लोग सद्कर्मों की ओर उन्मुख हों। इसी से जुड़ा एक प्रसंग महान बांग्ला नाटककार से सम्बंधित है, जो स्वामी रामकृष्ण परमहंस के अनन्य भक्त थे। उनका नाम गिरीश घोष है, के लिखे 'शिवाजी" काव्य को पढ़कर 'रविन्द्रनाथ ठाकुर' गद्गद हो उठे थे। एक दिन घोष स्वामी रामकृष्ण की पत्नी शारदा माँ से मिलने जयरामवाटी आश्रम पहुंचे। माँ का सारगर्भित प्रवचन सुना, तो उन्हें लगा कि सब व्यर्थ है। ऐसे में सन्यास लेकर भगवान की उपासना में जीवन बिता देना ही उचित है।

     सुबह वह माँ के चरणों में बैठकर बोले, माँ, अब तक में नाटक और कवितायेँ लिखने और थियेटरों में अभिनय करने में  समय गंवाता रहा हूँ। लेकिन अब सन्यास लेकर भगवान की उपासना में जीवन लगाना चाहता हूँ। 

     माँ ने सुना तो मुसकरा कर बोली, " तुमहारे लेखन से अनेकों पाठक प्रेरणा लेते हैं। तुम लोकोपकार के कार्य में लगे हुए हो। लोकोपकार से बढ़कर भला कौन-सा ईश्वर-भजन है। मनुष्य के हर सुकृत्य के साथ स्वयमेव इश्वर भजन हो जाता है।

प्रेम और मोह

    प्रेम आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति है। नारद भक्ति सूत्र में "सः हि अनिर्वचनियो प्रेम रूपः " कहकर परमेशवर को रूप घोषित किया है। इसी का बोध होने में ज्ञान की सार्थकता है। प्रेम आत्मा की विशेषता है।कबीर कहते हैं, "ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।" अर्थात ढाई अक्षरों में ही निहित प्रेम के इस तत्व को प्राप्त कर लेने में ही पांडित्य की सार्थकता है।
    इसमें ऐसा कौनसा तत्व निहित है, जिसे जानने से सब कुछ जान लिया जाता है? इस विषय पर चिंतन करने से ज्ञात होता है कि पत्नी और बच्चों से किया जाने वाला प्रेम, प्रेम नहीं मोह होता है। 
     
    इस प्रेम और मोह में विरोधभास जैसी स्तिथि है। प्रेम चेतन से होता है, जबकि मोह जड़ से। पत्नी आदि से किया जाने वाला तथाकथित ' प्रेम' उसके जड़ शरीर से होता है, न कि चेतन स्वरूप आत्मा से, अतः यह मोह ही है। इसकी जड़ की ओर उन्मुखता हाड़-मास वाले शरीरधारियों तक ही सीमित रहती है, वरन लकड़ी, पत्थरव चूने के बने भवन से लेकर विभिन्न प्रकार के सामानों तक बढ़ जाती है, पर इसके विस्तार का क्षेत्र जड़ ही है।
   
    मह्रिषी याज्ञवल्क्य स्पष्ट करते हैं कि कोई भी आत्मा के कारण प्रिय हो, यही प्रेम की सच्ची परिभाषा है। मोह जहाँ विभेद उत्पन्न करता है, प्रेम वहीँ अभेद की स्तिथि पैदा करता है। प्रेम व्यापक तत्व है, जबकि मोह सिमित-परिमित। प्रेम का प्रारम्भ संभव है कि किसी एक व्यक्ति से हो, पर उस तक सिमित नहीं रह सकता। यदि यह सिमित रह जाता है, कुछ पाने की कामना रखता है तो समझना चाहिए कि यह मोह है, प्रेम नहीं। प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, मनुष्यों से जुड़कर उनके कल्याण की और विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में मनुष्य, पदार्थ, विश्व की किसी न किसी प्रकार की स्वार्थ सिद्धि की अभिलाषा रहती है। प्रेम की ज्योति सामान्य दीपक की ज्योति नहीं, जिसमे अनुताप हो, अपितु यह द्रव्य चिंतामणि की शीतल स्निग्ध ज्योति है, जिससे शरीर, मन, बुद्धि, अन्तःकरण प्रकाशित होते व समस्त संताप शांत होते हैं। 

ब्रह्म-कण

     भारतीय मनीषा का सदैव से उद्घोष रहा है कि इस पृथ्वी का निर्माण ईश्वर ने किया है, जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड का नायक है। ऋषि-महर्षियो ने कण-कण में भगवान का वास बताया है। यही बात आज वैज्ञानिक भौतिक रूप से सिद्ध करने लगे हैं। वास्तव में ईश्वरीय सत्ता ही सर्वोपरी है, वही  इस स्रष्टि का स्रष्टा है, कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड का नायक है, आधार है, संचालक है, नियंता और निर्विकार है। उसी की इच्छा से लय-प्रलय होती है।वही सर्वोपरि है। विज्ञान उस परमपिता परमात्मा की उपस्तिथि को स्वीकार करने की द्रष्टि से वैज्ञानिक अविष्कारों के माध्यम से अब कण-कण में ब्रह्म का वास स्वीकार तो करने लगा है। ईश्वरीय संकल्पना अत्यंत विराट है। मनीषियों ने दिव्य-द्रष्टि से उसे जाना और उसे निरुपित किया कि वह अगम-अगोचर, निर्विकार, निराकार है। 

     "गॉड-पार्टिकल" की खोज भारतीय वैदिक मान्यता और भारतीय दर्शन की मान्यताओं की पुष्टि ही कर रही है। स्रष्टि की रचना के सम्बन्ध में वेदों में निरुपित किया गया है कि यह वही स्रष्टि है जो इस स्रष्टि के पहले थी। उसी तरह के सूर्य-चन्द्र, पृथ्वी और सम्पूर्ण स्रष्टि विध्यमान है जिसकी पूर्व में कल्पना की जाती थी।

     वैज्ञानिकों का कार्य 'क्या, क्यों, और कैसे' के माध्यम से किसी कार्य को सम्पादित करना होता है, न कि उसका उदभव करना। यह सम्पूर्ण स्रष्टि ईश्वर की संरचना है, हम इसे पोषित-पल्लवित तो करें, न कि उसकी रचना को विध्वंस के कगार पर ले जायें। भारतीय दर्शन के सभी सिद्धांत 'रोम-रोम' में 'राम' का वास ही नहीं मानते, बल्कि सर्वत्र कण-कण में व्याप्त ब्रह्म को ही मानते हैं। "अहम ब्रह्मास्मि" की इसी वैदिक मान्यता को वैज्ञानिक सिद्ध करने में लगे हैं। यह अच्छा प्रयास है कि उन्होंने "गॉड-पार्टिकल" द्वारा सिद्ध कर लिया है कि "ब्रह्म-कणों" द्वारा ही इस स्रष्टि का निर्माण हुआ है। परमात्मा द्वारा इस स्रष्टि की स्रज्नता को विश्व के सभी धर्म स्वीकारते हैं, पर अब वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों द्वारा "गॉड-पार्टिकल्स" ब्रह्म कणों से स्रष्टि निर्माण की बात स्वीकार की है वह भारतीय दर्शन को ही पुष्ट करती है। 

सदाचरण

    मानव को बचपन में जो संस्कार प्राप्त होते हैं, उन्ही के अनुसार वह व्यव्हार करने लगता है। यह व्यवहार धीरे-धीरे अभ्यास में आ जाता है। 
    आचरण को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-
  1. वे आचरण जिनके परिणाम अच्छे होते हैं। वे सद-आचरण कहे जाते हैं।
  2. दुसरे वे जिनके परिणाम बुरे होते हैं, वे दुराचरण कहे जाते हैं।
    सदाचरण वाला व्यक्ति अपने आचरण के परिणामस्वरूप शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से सदैव आनंदित रहता ही है, साथ ही समाज में भी इसकी छवि सम्मानजनक होती है, जबकि दुराचरण वाला शारीरिक, मानसिक कष्ट उठाने के साथ-साथ अपनी आत्मा के विरुद्ध कार्य करके अन्दर ही अन्दर पीड़ित रहता है। समाज में उसकी छवि निंदनीय होती है। 

    आचरण धर्म की निति को चार भागों में व्यक्त करते हैं--सत्य, तप, दया और पवित्रता। इन चरों में सत्य ही प्रथम और अंतिम है। यदि सत्य है तो तप, दया और पवित्रता भी चलते रहेंगे, पर सत्य के चले जाने पर तप, दया व पवित्रता अपने वास्तविक अर्थों में नहीं टिक पाते। सत्य तो परमात्मा का रूप ही है। सत्य के द्वारा ही मनुष्य प्रभु के समीप पहुँच पाता है।
   
    वेदों में यह निर्देश है कि जो मात्र अपने लिए ही पकाकर खाता है, वह अन्न नहीं पाप खाता है। राजा परीक्षित न जब कलि से राज्य को छोड़कर जाने को कहा तो कलि ने अपने लिए स्थान माँगा। परीक्षित ने उसे हिंसा, मदिरा, जुआ, असत्य, निर्दयता, आसक्ति, अहंकार बताये, जी दुराचरण वाले व्यक्ति के व्यव्हार व अभ्यास में होते हैं। कलि को संतोष नहीं हुआ और उसने एक अच्छा स्थान भी माँगा तो रजा ने स्वर्ण दे दिया जो दुराचारी को और भी गहरी गर्त में ले जाता है। सदाचरण वाला व्यक्ति सदैव संतोषी रहता है। जिस व्यक्ति में सत्य, तप, दया और पवित्रता के गुण हैं, वह प्रभु के निर्देशानुसार चलने वाला मनुष्य ही है। ऐसे मनुष्य को काम, क्रोध लोभ, मोह जैसे दुर्गुण नहीं सता पाते। इस प्रकार सदाचरण मानव के लिए जीवन की सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

Friday, November 16, 2012

शाश्वत आनंद

दर्शन का आनंद भक्ति, साधना, आश्था, श्रद्धा और विश्वास के ज्ञानकुंद में भौतिकता को भूल कर उसमे डुबकियाँ लगाने में है। संसार का आनंद वस्तु तथा पदार्थ की मात्रात्मक वृद्धि के साथ बढ़ता है, लेकिन मद, अहंकार, लोभ, मोह, संग्रह, घ्रणा, द्वेस के कीट कालांतर में इस आनंद की भूमि में स्वतः ही प्रकट हो जाते है। जीव इन्ही के गणित की चिंता में डूबा रहता है। शाश्वत आनंद का मार्ग पदार्थगत आसक्ति के कबाड़ से अवरुद्ध हो जाता है। भौतिकता का सुख मिलता है, लेकिन क्षणिक, किसी मादक पेय की तरह। फिर वास्तविक स्तिथि में लौटते समय पश्चाताप व अज्ञानता  सर्पदंश गहरी पीड़ा देता है। संग्रह और भौतिकता का विस्तार कलह, अशांति,  वैमनस्यता, द्वेष, हिंसा, कुचिन्तन को जन्म देता है।भौतिकता का संग्राहक न स्वयं सुखी रहता है और न धरोहर रूप में आभासित सुख अपनी संतति को दे पाता है।

    भक्ति, ज्ञान, व अध्यात्म की त्रिवेणी का चरनामृत भौतिकता की सुधा को भस्म कर शांति, आस्था व विश्वास से ह्रदय व तन को अभिसिंचित कर यत्र-तत्र-सर्वत्र पवित्रता सृजित करता है।इसके तट पर आकार चिंता चिंतन में, अशांति शांति में, द्वेष आस्था में, अज्ञान ज्ञान में, घुटन क्षोभ व पश्चाताप जिज्ञासा में परिवर्तित होकर जीव को जीवन के यथार्थ गंतव्य का दिग्दर्शन कराती है। आनंद लोक के हर पथ पर परमानन्द के ज्ञान के ज्ञान गुरु दिव्य-द्रष्टि से जीवन को ज्ञान-चर्चा से धन्य कर देते हैं। संसार के अपनत्व व आस्था की डोर प्राप्ति की आशा के समाप्त होते ही छूट जाती है, फिर न संबंधों में सुख मिलता है और न अपनत्व में। जीव किसी संसारी को खुश करने की चाह में जीवन भर स्वयं दुःख की वैतरिणी में डूबता-उतरता रहता है, अपना सर्वश्व अर्पण करने पर भी हाथ कुछ नहीं लगता। ईश्वर विपरीत से विपरीत स्तिथि में भी अपनी दया, ज्ञान व भक्ति के तिनके जब तब छोड़ते ही हैं।

योग का अर्थ

     गीता में योग की तीन परिभाषाएं दी गयी हैं---
  1. कर्म में कुशलता योग है।
  2. समभाव में स्तिथ होकर कर्म करना योग है।
  3. दुःख के संयोग के वियोग का नाम योग है।
     जिज्ञासा है कि यदि कोई व्यक्ति बड़ी कुशलता से दुराचार या कदाचार कर रहा है तो क्या वह योग कर रहा है? दर-असल, दक्षता या चतुराई के साथ किया गया कोई भी काम योग नहीं है। चूँकि पाप-पुन्य दोनों आसक्त कर्म हैं, अतः सभी आसक्त कर्मों का त्याग ही योग है।
     " योग कर्तव्य करने की उस कुशलता का नाम है-जिसमे कर्म का फल लिप्त नहीं होता है।"

    सर्वोच्च लक्ष्य (परमात्मा) के साथ सम्बन्ध जोड़ लेना ही योग है। ब्रह्म  स्वाभाव से सम है। अतः समत्व में स्तिथ होकर कर्म करने का अर्थ है-प्रभुभाव से कर्म करना। यही कर्म में कुशलता का ममर्थ है। 

    गीता कहती है - "गुलाम की तरह कर्म मत करो, भगवान की तरह कर्म करो। कर्म में ही तेरा अधिकार है, फल तो भगवान के हाथों में है। फल के लालच में गुलाम मत बनो। ध्यान रहे कि- न तो तेरा अधिकार शरीर पर है  न ही मन-बुद्धि पर। खाना तेर अधिकार में है, पचाना तेरे अधिकार में नहीं है, तभी तो  न चाहते हुए भी तुम बीमार पड़ जाते हो, विक्षिप्त हो जाते हो और गलत फैसले लेते रहते हो।"

    फल नहीं मिलेगा तो कर्म नहीं करोगे,  यह "तमोगुण" है।
    कर्म करेंगे तो फल लेंगे ही,  यह "रजोगुण" है।
    कर्म करते हुए फल को भगवान को अर्पित कर देंगे, यह "सतोगुण" है।
   
    फल प्राप्ति के बाद भी लोक-कल्याण के लिए कर्म करते हुए रहना भगवद- इच्छा है, जो त्रीगुनातित है। सुख-दुःख दोनों स्तिथिओं में सम रहने वाले योगी को न तो सुख स्पर्श करता है और न दुःख। शरीर है तो दुःख की वृत्तियाँ रहेंगी ही।  दुःख आगे है, पीछे है, ऊपर है, नीचे है। दुःख से संयोग तो होता है, किन्तु भवसागर में कमल-पत्रवत रहने वाले योगी को वो छू नहीं पाते हैं। यह दुःख का वियोग न होकर दुःख के संयोग का वियोग है। यही गीता में योग का मर्मार्थ है।

Thursday, November 15, 2012

दिव्य व्यक्तित्व

     हमारे व्यक्तित्व का प्रथम परिचय, प्रथम झांकी है- हमारा व्यव्हार।
व्यव्हार से ही व्यक्तित्व का बाह्य स्वरुप झलकता है। व्यव्हार शालीन एवं सज्जनोचित होना चाहिए, परन्तु शिष्टाचार के बावजूद आवश्यक नहीं कि विचार एवं भाव ठीक हों। क्योंकि व्यव्हार से व्यक्तित्व के आंकलन की मनोवैज्ञानिक अवधार्नाएं अब बदलने लगी हैं।

     व्यव्हार शिष्ट एवं शालीन होने के साथ-साथ सदाचार-पूर्ण होना चाहिए। शिष्टाचार से व्यव्हार को संवारा-सजाया जा सकता है, व्यव्हार विकसित हो सकता है, परन्तु आतंरिक भाव बे-असर रह जाता है। केवल शिष्टाचार से आत्म-चेतना मुरझाने लगती है। अंत में जड़ बनकर मर जाती है। आज जीवन की संवेदन-हीनता  पीछे यही तथ्य एवं मर्म ढका-छिपा है। आज सदाचार का नामोनिशान नहीं है। यह भुला हुआ एक अवशेषमात्र रह गया है। सदाचार के साथ शिष्टाचार भी दम तोड़ने लगा है। परिणामस्वरुप जीवन अन्दर - बाहर दोनों स्तरों पर रिक्त और रीता बन गया है, क्योंकि हमारी सोच, हमारी कल्पनाओं के स्तर से हेय हो गयी है। चिंतन चिंताजनक हो गया है। चिंतन तो हमारी सोच, विचार एव कल्पनाओं  में नित्य सतत उमड़ता-घुमड़ता रहता है। जब तक हमारी सोच सही नहीं होगी, कल्पनाएँ उत्कृष्ट नहीं होंगी, विचार श्रेष्ठ नहीं होंगे, तब तक इस चिन्तनीय समस्या का समाधान नहीं मिल सकेगा। समाधान है कि सदैव एवं सतत शुभ चिंतन किया जाये। स्वयं तथा दूसरों के प्रति अच्छा सोचा जाये और ऐसा अभ्यास से संभव हो पायेगा। 

     हमारी मानसिक सम्रद्धि भी बहुत कुछ सदाचार पर निर्भर करती है, क्योंकि हम तभी मानसिक रूप से सम्रद्ध हो सकते हैं जब हम पूरी तरह सुख-शांति अर्जित कर लें। इस स्तिथि तक पहुचने के लिए घर-परिवार और समाज के तमाम लोगों की आवश्यकता पड़ती है, अकेले के बस की बात नहीं है।आधुनिकता की अंधी दोड़  ने मानवता और सदाचार को बहुत पीछे धकेल दिया है।