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Sunday, November 18, 2012

त्याग और विरक्ति

    त्याग स्थूल जगत से सम्बन्ध रखता है। जीवन और जगत की अपरिहार्य आवश्यकताओं को छोड़ देना त्याग है। त्याग के दो रूप हैं- ऐच्छिक और अनैच्छिक। ऐच्छिक त्याग से सुखानुभूति होती है और अनैच्छिक से दुखानुभुती। सांसारिक संबंधों एवं राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि से निर्लिप्त हो जाना विरक्ति है।
   
पुराण में कहा गया है कि संसार कालकूट विष से भी भयंकर विष है। इसमें मिथ्यात्व का भाव रखकर ही इसके विष को नष्ट किया जा सकता है। सांसारिक भोगों से इन्द्रियों की तृप्ति नहीं होती, अतएव विचारपूर्वक मन, वाणी और कर्म से भोगों के प्रति विरक्ति का भाव रखना ही श्रेयस्कर है। भोग ही मनुष्य के अनेक योनियों में जन्म लेने का कारण बनते हैं। लौकिक और पारलौकिक इन दोनों को हेय समझकर जो इनका परित्याग कर देता है, वही विरक्त है। हमारे ऋषि-मुनियों के जीवन में त्याग और विरक्ति का अदभुत सामंजस्य रहा है। उन्होंने जिस साधना मार्ग को अपनाया वह उनके स्वयं के साथ-साथ समाज और देश के लिए भी कल्याणप्रद सिद्ध हुआ। संसार अज्ञानमूलक है। निष्काम कर्म के द्वारा जीव भाव क्षीण होता है। अज्ञान अंधकार नष्ट हो जाता है।सर्वत्र कोटि सूर्य सम प्रकाश की ज्योति उसे निरंतर जगाये रहती है। तब बाह्य नेत्र भले ही बंद रहें, लेकिन अंतर-चक्षु खुले रहते हैं। ज्ञान सूर्य से प्रकाशित जीवात्माएं जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाती हैं। उन्हें शरीर की म्रत्यु प्रभावित नहीं करती। आत्मा तो नित्य है, शाश्वत है, वह कभी नहीं मरती। उसे वही जान पाता है, जो आत्म-साक्षात्कार कर स्वयं में स्तिथ होना है। इस स्तिथि को जीव उस समय प्राप्त कर पाता है जब वह त्याग और विरक्ति के मार्ग को अपनाना है। त्याग और विरक्ति के लिए आवश्यक है कि संसार में आसक्ति का भाव न हो। त्याग के द्वारा इस भवसागर को पार किया जा सकता है। त्याग और विरक्ति के द्वारा ही मुक्ति प्राप्त होती है।

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