संसार में रहना एक विध्या (कला) है। अपने सुख की इच्छा रखने वाले को यह कला नहीं आती। घर से बाहर जाने पर सेवा चाहते रहने से हमारा कल्याण नहीं होता। किसी से कुछ भी चाहते रहने से हम पराधीन हो जाते हैं। अपेक्षा, उपेक्षा की जननी है। संसार में कुछ भी चाहना हमे पराधीन बनाता है। दूसरों की चाहत पूरी करने से हमारे अन्दर अपनी चाहत का त्याग करने की सामर्थ्य आ जाती है। अपने स्वार्थ की ही इच्छा रखने वाले की त्याग की शक्ति नष्ट हो जाती है। इच्छाएं तो राजा को भी भिखारी बना देती हैं। मैं तो यही कहूँगा कि - "जहाँ चाह है, वहां दुःख होता है।" क्योंकि चाहत(इच्छाएं) पूरी न होने पर दुःख की अनुभूति होती है। दूसरों की सेवा-सहायता करने से हमारे अन्दर स्वतंत्रता आती है।
संसार में रह कर स्वतंत्र होना ही संसार से ऊँचा उठना है। यही मुक्ति और जीने की सार्वभौमिक कला है। किसी भी प्रकार की परिस्तिथि में न डिगने पर निश्चय ही विजय मिलती है। स्वयम के लिए न रहकर संसार के लिए रहने से ऊँचे उठते हैं। किसी से कुछ भी न चाहने पर दुःख नहीं आते। सेवा करने से त्याग होता है। जल में कमल के पत्ते की तरह रहना है। दुखों का कारन-आशा और नैराश्य है। किसी से भी आशा रखना छोड़ दो फिर देखना दुःख आपके पास आ ही नहीं सकते। संसार से चाहत रखना ठगाई में फसना है। व्यव्हार में परमार्थ की कला है- चाह को त्याग कर सेवा करना। संसार में रहना है तो रबर की गेंद की तरह रहो। वह खेलते समय फुदकती तो बहुत है, लेकिन कही पर चिपकती नहीं। मिटटी का लोंदा बनकर नहीं। लेने की इच्छा फसना है, अद्भुत मुक्ति ही स्वतः सिद्ध परम कल्याण है।
-रवि सर (आशीष)
Tuesday, November 20, 2012
जीने की कला
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