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Saturday, November 17, 2012

प्रेम और मोह

    प्रेम आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति है। नारद भक्ति सूत्र में "सः हि अनिर्वचनियो प्रेम रूपः " कहकर परमेशवर को रूप घोषित किया है। इसी का बोध होने में ज्ञान की सार्थकता है। प्रेम आत्मा की विशेषता है।कबीर कहते हैं, "ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।" अर्थात ढाई अक्षरों में ही निहित प्रेम के इस तत्व को प्राप्त कर लेने में ही पांडित्य की सार्थकता है।
    इसमें ऐसा कौनसा तत्व निहित है, जिसे जानने से सब कुछ जान लिया जाता है? इस विषय पर चिंतन करने से ज्ञात होता है कि पत्नी और बच्चों से किया जाने वाला प्रेम, प्रेम नहीं मोह होता है। 
     
    इस प्रेम और मोह में विरोधभास जैसी स्तिथि है। प्रेम चेतन से होता है, जबकि मोह जड़ से। पत्नी आदि से किया जाने वाला तथाकथित ' प्रेम' उसके जड़ शरीर से होता है, न कि चेतन स्वरूप आत्मा से, अतः यह मोह ही है। इसकी जड़ की ओर उन्मुखता हाड़-मास वाले शरीरधारियों तक ही सीमित रहती है, वरन लकड़ी, पत्थरव चूने के बने भवन से लेकर विभिन्न प्रकार के सामानों तक बढ़ जाती है, पर इसके विस्तार का क्षेत्र जड़ ही है।
   
    मह्रिषी याज्ञवल्क्य स्पष्ट करते हैं कि कोई भी आत्मा के कारण प्रिय हो, यही प्रेम की सच्ची परिभाषा है। मोह जहाँ विभेद उत्पन्न करता है, प्रेम वहीँ अभेद की स्तिथि पैदा करता है। प्रेम व्यापक तत्व है, जबकि मोह सिमित-परिमित। प्रेम का प्रारम्भ संभव है कि किसी एक व्यक्ति से हो, पर उस तक सिमित नहीं रह सकता। यदि यह सिमित रह जाता है, कुछ पाने की कामना रखता है तो समझना चाहिए कि यह मोह है, प्रेम नहीं। प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, मनुष्यों से जुड़कर उनके कल्याण की और विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में मनुष्य, पदार्थ, विश्व की किसी न किसी प्रकार की स्वार्थ सिद्धि की अभिलाषा रहती है। प्रेम की ज्योति सामान्य दीपक की ज्योति नहीं, जिसमे अनुताप हो, अपितु यह द्रव्य चिंतामणि की शीतल स्निग्ध ज्योति है, जिससे शरीर, मन, बुद्धि, अन्तःकरण प्रकाशित होते व समस्त संताप शांत होते हैं। 

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