हमारे नितिशाश्त्रो में कहा गया है कि लौकिक कर्मकाण्ड भगवद-भजन का प्रदर्शन मात्र है। अगर हम वाकई प्रभु की भक्ति करना चाहते हैं, तो हमें कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे लोग सद्कर्मों की ओर उन्मुख हों। इसी से जुड़ा एक प्रसंग महान बांग्ला नाटककार से सम्बंधित है, जो स्वामी रामकृष्ण परमहंस के अनन्य भक्त थे। उनका नाम गिरीश घोष है, के लिखे 'शिवाजी" काव्य को पढ़कर 'रविन्द्रनाथ ठाकुर' गद्गद हो उठे थे। एक दिन घोष स्वामी रामकृष्ण की पत्नी शारदा माँ से मिलने जयरामवाटी आश्रम पहुंचे। माँ का सारगर्भित प्रवचन सुना, तो उन्हें लगा कि सब व्यर्थ है। ऐसे में सन्यास लेकर भगवान की उपासना में जीवन बिता देना ही उचित है।
सुबह वह माँ के चरणों में बैठकर बोले, माँ, अब तक में नाटक और कवितायेँ लिखने और थियेटरों में अभिनय करने में समय गंवाता रहा हूँ। लेकिन अब सन्यास लेकर भगवान की उपासना में जीवन लगाना चाहता हूँ।
माँ ने सुना तो मुसकरा कर बोली, " तुमहारे लेखन से अनेकों पाठक प्रेरणा लेते हैं। तुम लोकोपकार के कार्य में लगे हुए हो। लोकोपकार से बढ़कर भला कौन-सा ईश्वर-भजन है। मनुष्य के हर सुकृत्य के साथ स्वयमेव इश्वर भजन हो जाता है।
सुबह वह माँ के चरणों में बैठकर बोले, माँ, अब तक में नाटक और कवितायेँ लिखने और थियेटरों में अभिनय करने में समय गंवाता रहा हूँ। लेकिन अब सन्यास लेकर भगवान की उपासना में जीवन लगाना चाहता हूँ।
माँ ने सुना तो मुसकरा कर बोली, " तुमहारे लेखन से अनेकों पाठक प्रेरणा लेते हैं। तुम लोकोपकार के कार्य में लगे हुए हो। लोकोपकार से बढ़कर भला कौन-सा ईश्वर-भजन है। मनुष्य के हर सुकृत्य के साथ स्वयमेव इश्वर भजन हो जाता है।
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