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Friday, November 23, 2012

श्रेय और आत्म-कल्याण

   " वेदांत में श्रेय व प्रेय का विवरण आता है। प्रेय का अर्थ है प्रिय, जो तुरंत आकर्षित करता है। श्रेय सच्चे कल्याण का प्रेरक है जो अंत में मंगलमय होता है। नीति और धर्म, समस्त वस्तुओं और अनुभवों को इन दो वर्गों (श्रेय और प्रेय) में बाँटते हैं। प्रेय में शारीरिक सुख, कामनाओं की पूर्ति और निरंतर आशा, निराशाओं में मनुष्य डूबता रहता है, परन्तु श्रेय मानव और समाज के सच्चे कल्याण से सम्बंधित है। भौतिक सुख के लिए मनुष्य अनैतिक कार्य भी करता है, जैसा कि आज भ्रष्टाचार एवं चरित्र-पतन के रूप में देखा जा सकता है।"
    " श्रेय नैतिकता का पाठ पढ़ाकर अध्यात्मिक विकास पर जोर देता है। मनुष्य के आत्मविश्वास में प्रथम स्तर नैतिकता है अर्थात सामाजिक संदर्भ में मनुष्य का कल्याण। नैतिक स्तर पर मनुष्य अपने अलावा दूसरों का भी ध्यान रखता है। सच्चे श्रेय या कल्याण के लिए बाहरी और भीतरी दोनों स्तरों पर अनुशाशन जरुरी है। आन्तरिक अनुशासन से तात्पर्य है- ईर्ष्या, द्वेष, लोभ-मोह व क्रोध पर नियंत्रण। इसके द्वारा जब ह्रदय में उठने वाली समस्त कामनाएं नष्ट हो जाती हैं तो मनुष्य अम्रत का पान करके अमरता को प्राप्त करता है और इसी जगत में ब्रह्म की अनुभूति करता है। प्रेय उसको तात्कालिक सुख देता है और श्रेय उसका कल्याण करता है।"
    "सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन ने गीता की विवेचना में कहा है- यदि स्वर्ग का सुख भोगना है तो पूरे समाज को भी साथ में लेना पड़ेगा और यही नैतिकता कहलाती है। कठोपनिषद में इसी समाज कल्याण की भावना का प्रदर्शन नचिकेता ने यम के सम्मुख किया। यम को जब विश्वास हो गया कि नचिकेता इस रहस्य या ज्ञान को प्राप्त करने का सच्चा अधिकारी है तब उन्होंने नचिकेता को ज्ञान देते हुए बताया कि आत्मा अजर-अमर है। आत्मा ही ब्रह्म है तथा उसकी कभी म्रत्यु नहीं होती। केवल पंच महाभूतों का बना यह शरीर रूपी ढांचा समय अनुसार क्षय को प्राप्त होता है, जिसे संसार में मृत्यु के नाम से पुकारा जाता है। कर्मों का भोग करने के लिए सूक्ष्म शरीर के साथ आत्मा जन्म, मृत्यु के चक्कर में पड़ी रहती है।" 
-रवि कुमार सिंह  

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