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Thursday, November 15, 2012

दिव्य व्यक्तित्व

     हमारे व्यक्तित्व का प्रथम परिचय, प्रथम झांकी है- हमारा व्यव्हार।
व्यव्हार से ही व्यक्तित्व का बाह्य स्वरुप झलकता है। व्यव्हार शालीन एवं सज्जनोचित होना चाहिए, परन्तु शिष्टाचार के बावजूद आवश्यक नहीं कि विचार एवं भाव ठीक हों। क्योंकि व्यव्हार से व्यक्तित्व के आंकलन की मनोवैज्ञानिक अवधार्नाएं अब बदलने लगी हैं।

     व्यव्हार शिष्ट एवं शालीन होने के साथ-साथ सदाचार-पूर्ण होना चाहिए। शिष्टाचार से व्यव्हार को संवारा-सजाया जा सकता है, व्यव्हार विकसित हो सकता है, परन्तु आतंरिक भाव बे-असर रह जाता है। केवल शिष्टाचार से आत्म-चेतना मुरझाने लगती है। अंत में जड़ बनकर मर जाती है। आज जीवन की संवेदन-हीनता  पीछे यही तथ्य एवं मर्म ढका-छिपा है। आज सदाचार का नामोनिशान नहीं है। यह भुला हुआ एक अवशेषमात्र रह गया है। सदाचार के साथ शिष्टाचार भी दम तोड़ने लगा है। परिणामस्वरुप जीवन अन्दर - बाहर दोनों स्तरों पर रिक्त और रीता बन गया है, क्योंकि हमारी सोच, हमारी कल्पनाओं के स्तर से हेय हो गयी है। चिंतन चिंताजनक हो गया है। चिंतन तो हमारी सोच, विचार एव कल्पनाओं  में नित्य सतत उमड़ता-घुमड़ता रहता है। जब तक हमारी सोच सही नहीं होगी, कल्पनाएँ उत्कृष्ट नहीं होंगी, विचार श्रेष्ठ नहीं होंगे, तब तक इस चिन्तनीय समस्या का समाधान नहीं मिल सकेगा। समाधान है कि सदैव एवं सतत शुभ चिंतन किया जाये। स्वयं तथा दूसरों के प्रति अच्छा सोचा जाये और ऐसा अभ्यास से संभव हो पायेगा। 

     हमारी मानसिक सम्रद्धि भी बहुत कुछ सदाचार पर निर्भर करती है, क्योंकि हम तभी मानसिक रूप से सम्रद्ध हो सकते हैं जब हम पूरी तरह सुख-शांति अर्जित कर लें। इस स्तिथि तक पहुचने के लिए घर-परिवार और समाज के तमाम लोगों की आवश्यकता पड़ती है, अकेले के बस की बात नहीं है।आधुनिकता की अंधी दोड़  ने मानवता और सदाचार को बहुत पीछे धकेल दिया है।

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