मानव को बचपन में जो संस्कार प्राप्त होते हैं, उन्ही के अनुसार वह व्यव्हार करने लगता है। यह व्यवहार धीरे-धीरे अभ्यास में आ जाता है।
आचरण को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-
आचरण को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-
- वे आचरण जिनके परिणाम अच्छे होते हैं। वे सद-आचरण कहे जाते हैं।
- दुसरे वे जिनके परिणाम बुरे होते हैं, वे दुराचरण कहे जाते हैं।
आचरण धर्म की निति को चार भागों में व्यक्त करते हैं--सत्य, तप, दया और पवित्रता। इन चरों में सत्य ही प्रथम और अंतिम है। यदि सत्य है तो तप, दया और पवित्रता भी चलते रहेंगे, पर सत्य के चले जाने पर तप, दया व पवित्रता अपने वास्तविक अर्थों में नहीं टिक पाते। सत्य तो परमात्मा का रूप ही है। सत्य के द्वारा ही मनुष्य प्रभु के समीप पहुँच पाता है।
वेदों में यह निर्देश है कि जो मात्र अपने लिए ही पकाकर खाता है, वह अन्न नहीं पाप खाता है। राजा परीक्षित न जब कलि से राज्य को छोड़कर जाने को कहा तो कलि ने अपने लिए स्थान माँगा। परीक्षित ने उसे हिंसा, मदिरा, जुआ, असत्य, निर्दयता, आसक्ति, अहंकार बताये, जी दुराचरण वाले व्यक्ति के व्यव्हार व अभ्यास में होते हैं। कलि को संतोष नहीं हुआ और उसने एक अच्छा स्थान भी माँगा तो रजा ने स्वर्ण दे दिया जो दुराचारी को और भी गहरी गर्त में ले जाता है। सदाचरण वाला व्यक्ति सदैव संतोषी रहता है। जिस व्यक्ति में सत्य, तप, दया और पवित्रता के गुण हैं, वह प्रभु के निर्देशानुसार चलने वाला मनुष्य ही है। ऐसे मनुष्य को काम, क्रोध लोभ, मोह जैसे दुर्गुण नहीं सता पाते। इस प्रकार सदाचरण मानव के लिए जीवन की सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
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