गीता में योग की तीन परिभाषाएं दी गयी हैं---
- कर्म में कुशलता योग है।
- समभाव में स्तिथ होकर कर्म करना योग है।
- दुःख के संयोग के वियोग का नाम योग है।

जिज्ञासा है कि यदि कोई व्यक्ति बड़ी कुशलता से दुराचार या कदाचार कर रहा है तो क्या वह योग कर रहा है? दर-असल, दक्षता या चतुराई के साथ किया गया कोई भी काम योग नहीं है। चूँकि पाप-पुन्य दोनों आसक्त कर्म हैं, अतः सभी आसक्त कर्मों का त्याग ही योग है।
" योग कर्तव्य करने की उस कुशलता का नाम है-जिसमे कर्म का फल लिप्त नहीं होता है।"
सर्वोच्च लक्ष्य (परमात्मा) के साथ सम्बन्ध जोड़ लेना ही योग है। ब्रह्म स्वाभाव से सम है। अतः समत्व में स्तिथ होकर कर्म करने का अर्थ है-प्रभुभाव से कर्म करना। यही कर्म में कुशलता का ममर्थ है।
गीता कहती है - "गुलाम की तरह कर्म मत करो, भगवान की तरह कर्म करो। कर्म में ही तेरा अधिकार है, फल तो भगवान के हाथों में है। फल के लालच में गुलाम मत बनो। ध्यान रहे कि- न तो तेरा अधिकार शरीर पर है न ही मन-बुद्धि पर। खाना तेर अधिकार में है, पचाना तेरे अधिकार में नहीं है, तभी तो न चाहते हुए भी तुम बीमार पड़ जाते हो, विक्षिप्त हो जाते हो और गलत फैसले लेते रहते हो।"
फल नहीं मिलेगा तो कर्म नहीं करोगे, यह "तमोगुण" है।
कर्म करेंगे तो फल लेंगे ही, यह "रजोगुण" है।
कर्म करते हुए फल को भगवान को अर्पित कर देंगे, यह "सतोगुण" है।
फल प्राप्ति के बाद भी लोक-कल्याण के लिए कर्म करते हुए रहना भगवद- इच्छा है, जो त्रीगुनातित है। सुख-दुःख दोनों स्तिथिओं में सम रहने वाले योगी को न तो सुख स्पर्श करता है और न दुःख। शरीर है तो दुःख की वृत्तियाँ रहेंगी ही। दुःख आगे है, पीछे है, ऊपर है, नीचे है। दुःख से संयोग तो होता है, किन्तु भवसागर में कमल-पत्रवत रहने वाले योगी को वो छू नहीं पाते हैं। यह दुःख का वियोग न होकर दुःख के संयोग का वियोग है। यही गीता में योग का मर्मार्थ है।
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