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Saturday, November 24, 2012

दिव्य उपहार

    प्रेम प्रभु का दिव्य उपहार है। अंतर्मन में इसके जागरण से मन प्रफुल्लित और पुलकित हो जाता है एवं हृदय पवित्र भावनाओं से स्पंदित होने लगता है। इसके जागरण से सर्वत्र आनंद की अनुभूति होने लगती है, क्योंकि परमात्मा सच्चिदानंद स्वरुप हैं। वासना प्रेम का प्रदुषण है।
    इस प्रदूषण ने आज पूरे जगत को प्रदूषित कर रखा है, लेकिन इसका रूपांतरण किया जा सकता है। इसका समाधान निहित है- उपनिषद के सर्वखल्विदं ब्रह्म में। अद्वैत वेदांत के इस सिद्धांत के अनुसार प्रभु जगत के कण-कण में विध्यमान है, परन्तु मानव की भेदद्रष्टि ही जगत की समस्याओं की जड़ है, जिसके समाप्त होते ही मनुष्य को जीवन के शाश्वत सत्य का बोध होने लगता है। प्रेम अपनी पूर्णता में पावन प्रकाश की छटा बिखेरता है। इसमें आनंद का दिव्य नाद निर्झर होता रहता है, जो जीवन पथ का पाथेय है। इसी आधार पर मनुष्य उचित-अनुचित, भले-बुरे का निर्णय लेता एवं इसी निर्णय क्षमता को विवेक, प्रज्ञा एवं मेधा आदि भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है।
     प्रेम का यही पावन प्रकाश अमर्त्य एवं असत से सत का प्रशस्त करता है। मानव की दुरावस्था का एकमात्र कारण है-प्रभु के प्रेम एवं प्रकाश का घोर अभाव। जगत में वासना और अंधकार का गहरा आवरण पड़ा हुआ है। इस महापंक में जितना डुबो, अतृप्ति की ज्वाला उतनी ही भड़कती है।इस अतृप्ति से क्रोध और इसे पाने की का लोभ मचलता है। फिर इसे पा जाने पर इससे चिपके रहने की आसक्ति मोह के रूप में पनपती है। ये भोग प्रधान कामनाएं सभी आसुरी शक्तियों का मूल कारण हैं, परन्तु यही कामनाएं जब परिष्कृत हो जाती हैं तो इनका पवित्र रूप महाप्रसाद में परिवर्तित हो जाता है। यही महातृप्ति है। प्रभु की उपस्थिति मात्र से ही उनकी दिव्यता की आभा से मूर्छना समाप्त हो जाती है। कर्म-संस्कारों के बीच गल जाते हैं और आत्मा-परमात्मा से मिलने को आकुल-व्याकुल हो उठती है।
-रवि कुमार सिंह  

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