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Friday, November 16, 2012

शाश्वत आनंद

दर्शन का आनंद भक्ति, साधना, आश्था, श्रद्धा और विश्वास के ज्ञानकुंद में भौतिकता को भूल कर उसमे डुबकियाँ लगाने में है। संसार का आनंद वस्तु तथा पदार्थ की मात्रात्मक वृद्धि के साथ बढ़ता है, लेकिन मद, अहंकार, लोभ, मोह, संग्रह, घ्रणा, द्वेस के कीट कालांतर में इस आनंद की भूमि में स्वतः ही प्रकट हो जाते है। जीव इन्ही के गणित की चिंता में डूबा रहता है। शाश्वत आनंद का मार्ग पदार्थगत आसक्ति के कबाड़ से अवरुद्ध हो जाता है। भौतिकता का सुख मिलता है, लेकिन क्षणिक, किसी मादक पेय की तरह। फिर वास्तविक स्तिथि में लौटते समय पश्चाताप व अज्ञानता  सर्पदंश गहरी पीड़ा देता है। संग्रह और भौतिकता का विस्तार कलह, अशांति,  वैमनस्यता, द्वेष, हिंसा, कुचिन्तन को जन्म देता है।भौतिकता का संग्राहक न स्वयं सुखी रहता है और न धरोहर रूप में आभासित सुख अपनी संतति को दे पाता है।

    भक्ति, ज्ञान, व अध्यात्म की त्रिवेणी का चरनामृत भौतिकता की सुधा को भस्म कर शांति, आस्था व विश्वास से ह्रदय व तन को अभिसिंचित कर यत्र-तत्र-सर्वत्र पवित्रता सृजित करता है।इसके तट पर आकार चिंता चिंतन में, अशांति शांति में, द्वेष आस्था में, अज्ञान ज्ञान में, घुटन क्षोभ व पश्चाताप जिज्ञासा में परिवर्तित होकर जीव को जीवन के यथार्थ गंतव्य का दिग्दर्शन कराती है। आनंद लोक के हर पथ पर परमानन्द के ज्ञान के ज्ञान गुरु दिव्य-द्रष्टि से जीवन को ज्ञान-चर्चा से धन्य कर देते हैं। संसार के अपनत्व व आस्था की डोर प्राप्ति की आशा के समाप्त होते ही छूट जाती है, फिर न संबंधों में सुख मिलता है और न अपनत्व में। जीव किसी संसारी को खुश करने की चाह में जीवन भर स्वयं दुःख की वैतरिणी में डूबता-उतरता रहता है, अपना सर्वश्व अर्पण करने पर भी हाथ कुछ नहीं लगता। ईश्वर विपरीत से विपरीत स्तिथि में भी अपनी दया, ज्ञान व भक्ति के तिनके जब तब छोड़ते ही हैं।

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